डर से नहीं — बराबरी से
अब तुम्हें मुझसे
शायद कोई मतलब नहीं रहा।
मतलब तब था
जब तुम्हें मेरी ज़रूरत थी,
तब तुम आए,
और मैं…
खुद को दे बैठी।
मैं हर बात में प्यार ढूँढती रही,
जैसे पागल लोग ढूँढते हैं
उम्मीद —
वहाँ भी
जहाँ उसका नामो-निशान नहीं होता।
तुमने मुझे
“पक्का इंतज़ाम” समझ लिया,
गारंटी वाला रिश्ता,
जहाँ तुम्हारी मर्ज़ी ही क़ायदा थी।
जैसे चाहो बोलो,
जैसे चाहो तोड़ो,
मुझे तो
सहने की आदत है —
यही तुमने सोच लिया।
तुम्हें लगा
यह जाएगी कहाँ?
इसके पास कोई रास्ता नहीं,
कोई दूसरा दरवाज़ा नहीं।
जो भी करूँगा
यह सुन लेगी,
झुक जाएगी,
और आख़िर में
मेरे पास ही लौट आएगी।
और सच कहूँ?
तुम्हारी गलतियाँ
आदत बन गईं,
और मेरी चुप्पी
मजबूरी।
आज जब तुम बात करते हो,
तो आवाज़ में प्यार नहीं,
एहसान होता है।
जैसे मुझसे बात करके
तुम बहुत बड़ा काम कर रहे हो।
पर आज…
रुको।
मैं मजबूर नहीं थी,
मैं बस
खुद को भूल गई थी।
मैं कोई आदत नहीं हूँ,
कोई ऐसी चीज़ नहीं
जो हर हाल में
तुम्हारे पास रहे।
मैं इंसान हूँ।
और इंसान को
इज़्ज़त चाहिए,
इजाज़त नहीं।
अब जो प्यार है न,
वो पहले
खुद को दूँगी।
और अगर कभी किसी के साथ रहूँगी,
तो डर से नहीं —
बराबरी से।
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